Saturday, April 2, 2011

नारीत्व के साथ छलावा

 


Anvar Shekh                        Represent: Dr. Santosh Rai
इस्लाम के कानून के अनुसार नारी को काम वासना पूर्ति के एक खिलौने के स्तर तक गिरा देने को प्रेरित करते हैं । इस्लामी
कानूनों को इस प्रकार गढ़ा गया है कि प्रभुत्व की ललक बनाम नारी का आकर्शण मजहबी नीति को लागू करने लिए नारी की स्वाधीनता
न्यूनतम रह जाए। तथापि,बलात् मतारोपण के द्वारा मुसलमानों को आष्वस्त किया जाता है कि इस्लाम ही वह प्रथम पन्थ ( मजहब ) है
जिसने स्त्रियों को निम्नलिखित अधिकार दिए ।
1. सम्पत्ति का उत्तराधिकार ( कोई कानून जब तक कानून नहीं है जब तक वह सभी पर समान रूप से लागू नहीं होता ।
इस प्रकार उत्तराधिकार का कानून पैगम्बर के वंषजों पर भी लागू होना चाहिए यानि कि पैगम्बर की पुत्री फातिमा पर उसी
प्रभाव के साथ लागू होना चाहिए जिस प्रभाव से यह अन्य स्त्रियों पर लागू होता है, परन्तु ऐसा नहीं हुआ । हदीस संख्या
3ः4351 ( मुस्लिम ) इस विशय पर व्यापक रूप से प्रकाष डालती है ।
2. पति को तलाक देने का अधिकार ( हम पैगम्बरों के उत्तराधिकारी नहीं होते, हम जो पीछे छोड़ जाते हैं वह दान में ( दे
दिया जाना ) है । इस हदीस के तर्क को दो कारणो से स्वीकार करना कठिन है । प्रथम तो पैगम्बर ने दावा किया है कि
वह सब लोगों के लिए व्यवहार का आदर्ष है इसलिए फातिमा को उसकी पैतृक सम्पत्ति सम्पत्ति से वंचित करना उसके
प्रति एकदम अन्यायपूर्ण व भेदभावपूर्ण कार्य है । कोई कानून किसी व्यक्ति के विरुद्ध सिर्फ इसलिए भेदभाव पूर्ण नहीं हो
जाता कि वह पुरुश अथवा स्त्री ( फातिमा ) या अन्य कोई पुरुश कानून बनाने वाली की संबंधी है ।
दूसरे फातिमा को अपनी पैतृक सम्पत्ति की षीघ्र आवष्यकता थी और उसका पति अली भी उसका समान रूप से इच्छुक था

मामला निर्णय के लिए खलीफा अबू बकर के पास भेजा गया । उसने पैगम्बर की सम्पत्ति में से फातिमा को कुछ भी देने से
इंकार कर दिया ।
इस कारण वह अबूबकर से क्रुद्ध हो गयी और उसका परित्याग कर दिया और जीवन पर्यन्त उससे बात नहीं की । जब वह मरी
तो उसके पति, अली बी, अबू तालिब ने उसे रात्रि में ही दफना दिया । उसने अबूबकर को फातिमा की मृत्यु की सूचना भी
नहीं दी और जनाजे की नमाज भी स्वयं ही सम्पन्न कर दी ।
इससे स्पश्ट है कि यदि पैगम्बर अपनी पुत्री ही को पैतृक सम्पत्ति से वंचित कर सकता है तो अन्य स्त्रियों को
इस्लाम के उत्तराधिकार के कानून से कोई अधिक आषा नहीं करनी चाहिए जो केवल कागज पर ही अच्छा दिखाई देता है । )
परन्तु प्रभाव में ये अधिकार जाली ही हैं क्योंकि स्त्रियों निम्नलिखित कारणों से इन अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकती ।
1क. अल्लाह ने स्त्रियांें पर पर्दे का कानून लागू किया है , अर्थात उन्हें सामाजिक जीवन में भाग नहीं लेना चाहिए
‘‘ और ईमान वाली स्त्रियों से कहा कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी षर्मगाहों ( गुप्त इंद्रियों ) की रक्षा
करें और अपना श्रृंगार न दिखांए सिवाय उसके जो जाहिर रहे और अपने सीनों ( वक्ष स्थल ) पर अपनी ओढ़नियों के आंचल
डाले रहें और वे अपने श्रृंगार किसी पर जाहिर न करें ................................
अनुवादक मुहम्मद फारूक खाँ, मकतबा अल हसनात ( देहली ) संस्करण ( अल अन नूर: 31 )
पुनः कुरआन में कहा है
हे नबी ! अपनी पत्नियों और अपनी बेटियों और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे ( बाहर निकलें तो ) अपने
ऊपर चादरों के पल्लू लटका लिया करें ।
( 33 अल अहजाब: 59 )
चादरों के पल्लू लटका लेने के साथ साथ , अल्लाह स्त्रियों के कार्यकलाप उनके घरों की चार दीवारों के भीतर ही
सीमित कर देता है ।
‘‘ अपने घरों के अंदर रहो । और भूतपूर्व अज्ञान काल की सज धज न दिखाती फिरो ’’
( 33 अल अहजाब: 33 )
स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित करने के लिए कुरआन में यह प्राविधान है
‘‘ पुरुश स्त्रियों के निगरां और जिम्मेदार हैं , इसीलिए कि अल्लाह ने एक को दूसर पर बड़ाई दी है, .....................
तो और जो स्त्रियाँ नेक होती है वे आज्ञा पालन करती हैं ......................और जो स्त्रियाँ ऐसी हों जिनकी सरकषी का तुम्हें
सच्चाई यह है कि इस्लामी कानून पूर्णतः कालवाह्य हैं । एक स्त्री द्वारा पति को तलाक देने का अधिकार एक आधुनिक घटना है जो स्त्रियों
के स्वतंत्रता आंदोलन के फलस्वरूप हुई है । इस विशय पर और अध्ययन करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि इस्लाम में खुला की वैधता नहीं है
और मुस्लिम मौलवियों ने स्त्रियों की संतुश्टि के लिए और खुले विद्रोह से बचने के लिए इसका प्रचलन किया है । कुरआन खुला का समर्थन
च्क्थ् ब्तमंजमक ूपजी कमेाच्क्थ् च्क्थ् ॅतपजमत . ज्तपंस रूरू ीजजचरूध्ध्ूूूण्कवबनकमेाण्बवउ
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नहीं करता है किन्तु कई हदीसें हैं जो इसका विरोध करती हैं । इनमें से एक को देखिए ‘‘ ये स्त्रियाँ जो खुला का सहारा लेकर वैवाहिक
बंधनों को तोड़ती हैं वे पाखण्डी हैं मुसलमान नहीं । ’’
( मिस्कट 2ः3148 )
भय हो, उन्हें समझाओ, बिस्तरों में उन्हेँ तन्हा छोड़ दो, और उन्हें मारो ।
( 4 अन निसा: 34 )
चूँकि एक स्त्री के लिए पर्दा अनिवार्य है और वह घर में ही प्रतिबन्धित है और पुरुश उसका प्रबंधक है, और यदि स्त्री उसकी
आज्ञा का उल्लंघन करे, तो पुरुश को उसे पीटने का अधिकार प्राप्त है, उसके सम्पत्ति के अधिकार एक आकर्शक ड्रामेबाजी ही है । वे
अधिकार ऐसे ही हें जैसे कि आत्मा के बिना षरीर, भाप के बिना रेल का इंजन, और तीरों के बिना कमान ।
2 क. जैसा कि पाद टिप्पणियों में कहा गया है कि एक स्त्री के पास पुरुश को तलाक देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है किन्तु खुला से
यह अर्थ निकलता है कि स्त्री ऐसा कर सकती है । तथापि पुरुश अपने आपको वैवाहिक बंधन से बिल्कुल स्वतंत्र रूप से इच्छानुसार मुक्त
कर सकता है परतंु एक पत्नि को यह यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक अत्यंत पेचीदा कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता है । इसके
अतिरिक्त यदि एक स्त्री पूर्ण औचित्य के बिना यह पग उठाती है तो उस पर खुदा का कोप एवं फरिष्तों का कहर टूट सकता है । पुनः पुरुश
प्रधान समाज में यह संभव है कि एक स्त्री की सब दलीलें पुरुश न्यायाधीष के ऊपर निश्प्रभावी रहें जिसे स्त्रियों का उपहासकरने , उन्हें
दबाने, और उन पर प्रभुत्व प्रदर्षित करने की आदत होती है ।
इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 पृश्ठ 571 के अनुसारः एक पत्नि को अपने पति से किसी गम्भीर कारण के अभाव में तलाक नहीं
लेना चाहिए । यदि वह ऐसा करती हैतेा वह जन्नत में नही जा सकेगी । यदि वह तलाक का कारण सिद्ध कर पाती है तो उसे कानूनी
मान्यता तभी प्राप्त है जब वह उसके पति द्वारा प्रदत्त सभी वस्तुओं को, चाहे वे हक के रूप में अथवा प्रत्यक्ष उपहार के रूप में हों वापिस
कर दे । एक स्त्री जो खुला का आश्रय लेती है, किसी समझौते की आषा नहीं करती ।
उत्तराधिकार के कानून एक पुरुश को दो स्त्रियों के बराबर मानते हैं । ( 4 अननिसाः11 ) साक्ष्य का कानून इससे भी अधिक
सख्त हैः न केवल दो स़्ित्रयों का साक्ष्य एक पुरुश के बराबर होता है किन्तु जहाँ साक्ष्य के लिए पुरुश उपलब्ध हो तो स्त्रियों को साक्ष्य देने
की अनुमति नहीं है ।
इस्लाम द्वारा स्त्रियों पर लादी गयी निम्नलिखित सीमाओं को ध्यान में रखते हुए कोई भी ईमानदारी से इसी निश्कर्श पर पहुंचेगा
कि यह सब जानबूझकर किया गया है ताकि स़्ित्रयों को कामवासना तृप्ति के खिलौने के रूप देने के लिए मानवाधिकारो से वंचित रखा जाए
जिससे पुरुश समुदाय अधिकाधिक संख्या में इस्लाम में घुस जाए ।
1. स्त्रियों का यह मजहबी कर्तव्य है कि वे अधिकाधिक संख्या में बच्चे पैदा करें, इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 पृश्ठ 518 और 523 के
अपने ‘‘ सुनुन ’’ में यह उल्लेख है पैगम्बर न कहा थाः ‘‘ षादी करना मेरा मौलिक सिद्धान्त है । जो कोई मेरे आदर्ष का
अनुसरण नहीं करता, वह मेरा अनुयायी नहीं है । षादियाँ करो ताकि मेरे नेतृत्व में सर्वाधिक अनुयायी हो जांए फलस्वरूप मैं
दूसरे समुदायों ( यहूदी और ईसाइयों ) से ऊपर अधिमान्यता प्राप्त करूं ।
इसी प्रकार मिस्कट खण्ड 3 में पृश्ठ 119 पर इसी प्रकार की एक हदीस हैः कयामत के दिन मेरे अनुयायियों की संख्या अन्य किसी
भी संख्या से अधिक रहे , और इस उद्देष्य की पूर्ति स्त्री जाति पर मात्र संतान उत्पत्ति के अनन्य भार को डालकर सम्भव थी ।
स्पश्टतः एक स़्त्री जो दर्जन भर बच्चे की माँ होंगी । उसके मस्तिश्क में तो इसी भय से आक्रान्त रहने की संभावना है कि यदि उसका
पति उसे छोड़ दे तो उसका क्या होगा ? पत्नि का अपने अँगूठे के नीचे रखने के लिए यह भय पर्यापत् षक्तिषाली अस्त्र है ।
2. दूसरी षर्त जो इस्लाम में स्त्रियों की स्थिति का निर्धारण करती है वह कुरआन में 57 अल हदीद 27 में दी गयी है ।
‘‘ और संसार त्याग ( वैराग्य ) की प्रथा उन्होंने स्वयं निकाली हमने इसका आदेष कभी नहीं दिया था, दिया था तो बस अल्लाह की
प्रसन्नता चाहने का, तो उन्हेंाने उसका जैसा पालन करना चाहिए था नहीं किया ।
साधारण षब्दों में इन आयतों का तात्पर्य है कि ईसाइयों ने वैराग्य का पालन करके प्रभु की इच्छा की अवज्ञा की है क्योंकि पुरुश
द्वारा स्त्री का संभोग अल्लाह का मनोरंजन है ।
इस प्रकार स्त्री कुछ भी नहीं है किन्तु वह तो पुरुश की भोग विलास की वस्तु है । तथापि इसके निहितार्थ है कि सुखदातु होने
के बदले में प्यार, आदर, इत्यादि इसके मूलभूत अधिकार हैं । वास्तव में प्रत्येक स्त्री को इसका ज्ञान है और वह आदर का व्यवहार
चाहती है, परंतु इस्लाम जो एक सेमिटिक दर्षन का अनुसरण करता है जिसके अनुसार एक पुरुश को उसके आदेषानुसार कामवासना
की पूर्ति होनी ही चाहिए, इस दृश्टिकोण से विरोध में है ।यही कारण है कि इस्लाम में स्त्री के संभोग में सहमति की कोई अवधारणा
नहीं है । इस्लाम में एक स्त्री पुरुश की जोत होती है और एक पुरुश को उसे स्वेच्छापूर्वक उपयोग करने का अधिकार है । यही कारण
है कि इस्लामी कानून का उद्देष्य पुरुश की प्रभुता है, स्त्री के ऊपर तद्नुरूप अपमान आरोपित हो जाता है । निम्नलिखित आयत से
पाठक इस तथ्य का निर्णय कर सकते हैं:
‘‘ उन स्त्रियों के भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार है जैसे कि स्वयं पर उन पर हैं , हाँ पुरुशों को उन पर एक
दर्जा प्राप्त है ।
( 2 अल बकरह 228 )
यह आयत बहुत ही विवादास्पद है और इस्लामी कट्टरपंथी उसे स़्त्री एवं पुरुशों की समानता सिद्ध करने के लिए
खींचते तानते रहते हैं । इसलिए इसकी सच्चाई को प्रदर्षित करने के लिए मैं हदीस का उद्धृत कर रहा हूँ ।
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‘‘ यदि स्त्रियाँ आपके आदेषों का पालन करें तो उन्हें उत्पीड़ित न करो ......................................... उनकी बात ध्यान से सुनो,
उनका आप पर अधिकार है कि आप उनकेा भोजन तथा वस्त्रों का प्रबंध करो ’’
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 पृश्ठ 519 )
इस प्रकार स्त्री के अधिकार उसके भरण पोशण तक ही सीमित हैं बषर्ते कि वह अपने पुरुश की आज्ञाओं का पालन करे । इस
बिंदु पर और अधिक चर्चा करने की बजाय मैं यह कहना चाहूँगा कि इस्लाम का सामान्य विष्वास है कि पुरुश स्त्री की अपेक्षा श्रेश्ठ
होता है । वास्तव मंे कुरआन का कानून इस विचार की पूर्णतया पुश्टि करता है । स्पश्टीकरण प्रस्तुत है ।
‘‘ ............................................. स्त्रियों में से जो तुम्हारे लिए जायज हो दो दो , तीन तीन , चार चार तक विवाह
कर लेा । ’’
( 4 अननिसा 3 )
यहाँ पुरुश को यह कानूनी अधिकार दिया गया है कि वह एक समय में अपनी पसंद की चार स्त्रियाँ रख ले । मुस्लिम विद्वान
बहु विवाह की लज्जा से बचने के लिए इस आयत की भिन्न भिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत कर रहे हैं । उदाहरण स्वरूप वे कहते हैं कि स्त्रियों को
बहु विवाह ( एक समय में एक से अधिक पति ) की अनुमति इसलिए नहीं दी गयी क्योंकि बच्चों के पिता का पता लगाना सम्भव नही ंतो
यह तर्क खरा नहीं उतरता, उनके समानता का सिद्धान्त निहित है ।
पुनः विज्ञान के विकास से यह दृश्टिकोण निश्प्रभावी हो जाता है पहले तो गर्भ निरोधकों से स्त्री को अपने षरीर पर नियंत्रण प्राप्त
हो गया है और अनिच्छुक होने पर संतानोंत्पत्ति से वह बच जाती हैं । दूसरी ओर आजकल चिकित्सीय परीक्षणो से बच्चे के पितृत्व की पुश्टि
पक्के तौर पर हो जाती है । इसलिए इस प्रकार के तर्क से इस्लामी कानून की मात्र तुच्छता, छिछोरापन,और अवास्तविकता ही प्रमाणित होती
है क्योंकि इस्लामी न्याय, सुख षांति एंव लाभदायकता के नाम पर स्त्री के ऊपर पुरुश को ही थोपना चाहता है ।
इन सबके ऊपर रखैलों के विशय में इस्लामी कानून तो एक पुरुश को इतनी स्त्रियाँ हरम में रखने की अनुमति देता है जितनी
वह रख सकता है । उदाहरण स्वरूप भारत के अकबर महान के हरम में 5000 रखैलें थी और उसके पुत्र जहाँगीर के हरम में भी 6000
कम रखैलें नहीं थीं । इनके लिए सिर्फ एक ही नाम दिया जा सकता है वह है- निजि वैष्यालय । तो भी मुसलमान विद्वान नैतिकता और
स्त्रियों के अधिकारों की बाते करते है। ं
3. हमें यह बताया गया है कि जैसे पुरुशों के स्त्रियों पर अधिकार हैं वैसे ही स्त्रियों के भी पुरुशों पर अधिकार है । इसे बराबरी के
प्रमाण के रूप में उल्लेख किया जाता है । वास्तव में यह अत्यंत भ्रामक है क्योंकि उनके पारस्परिक अधिकारों का संबंध ही पुरुश
को मालिक और स्त्री का दासी बना लेता है ।
स्त्रियों को पुरुशों के ऊपर एक ही उल्लेखनीय अधिकार है, वह है- भरण पोशण का अधिकार । इस विशय में मैं पहले ही एक हदीस
उद्धृत कर चुका हूँ । अब सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखिए -
यदि कोई पति अपनी पत्नि को पत्थरों की गठरी इस लाल पर्वत से उस काले पर्वत तक ले जाने को कहे तो उस स्त्री को
उसका पूरे मनोयोग से पालन करना चाहिए ।
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 अध्याय 592 पृश्ठ 520 )
4. अल्लाह कसम, मौहम्मद का जीवन कौन नियंत्रित करता है, एक स्त्री अल्लाह के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकती
जब तक उसने अपने पति के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया है, यदि वह स्त्री ऊँट पर सवारी कर रही हो और उसका
पति इच्छा प्रकट करे तो उस स्त्री को मना नहीं करना चाहिए ।
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 अध्याय 592 पृश्ठ 520 )
पुनः यदि एक पुरुश का मन संभोग करने के लिए उत्सुक हो तो पत्नी को तत्काल प्रस्तुत हो जाना चाहिए भले ही वह उस समय
सामुदायिक चूल्हे पर रोटी सेक रही हो ।
( तिरमजी खण्ड 1, पृश्ठ 428 )
5. यहाँ यह भी ध्यान रहे कि इस्लाम ने वह सभी कुछ किया है जिससे एक स्त्री अपने पति से तलाक न ले सके, और यह बात
विषेशकर सत्य है कि जबकि स्त्री माता भी हो, क्योंकि बच्चों की अभिरक्षा पिता को ही करनी होती है । इस निर्दयता को इस्लाम
ने कानूनी आवरण पहिना दिया है जिससे स्त्री पर पुरुश की पकड़ हो सके ।
6. इस्लाम में पुरुश के पक्ष में और एक स्त्री के विरुद्ध इतना अधिक भेदभाव है कि यह सामाजिक सोपान के निम्नतम स्तर से ही
प्रारम्भ हो जाता है ।
‘‘ आयषा ने कहा कि उसके पास एक दास और एक दासी है जो विवाहित पति पत्नि थे ।उसने नबी से कहा वह उनमें से एक को
मुक्त करना चाहती है । ’’ तो पैगम्बर ने कहाः कि पहले ( पुरुश ) को मुक्त किया जाए ।
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 2 अध्याय 130, पृश्ठ 100 )
7. उत्तराधिकार और विधिक साक्ष्य के क्षेत्रों में भी इस रवैये का बोलबाला है । यद्यपि न विशयों में मैं इस्लाम के दृश्टिकोण के
विशय में पहले ही कह चुका हूँ फिर भी स्त्रियों के प्रति साक्ष्य विधि के विशय में एक या दो षब्द और जोड़ देना चाहता हूँ ।
‘‘ .............................................................. और अपने पुरुशों मे से दो गवाहों को गवाही कर लेा, और यदि दो पुरुश न हांे तो एक पुरुश
और दो स्त्रियाँ जिन्हें तुम गवाह होने के लिए पसंद करो .............................. ( 2 अल
बकरह 282 )
इस प्रकार कानून में एक पुरुश दो स्त्रियों के बराबर है ।
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8. इस्लाम में बहु पत्नि प्रथा चार पत्नियों तक ही सीमित है, इस कल्पना से अधिक त्रुटिपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता, इसका छिपा
हुआ अर्थ, जो कुछ दिखाई देता है उससे कही अधिक गहन है क्योंकि इसमें मृगतृश्णा का भाव छिपा हुआ है:
‘‘ और यदि तुम ऐ पत्नि को छोड़कर उसकी जगह दूसरी पत्नी लाना चाहो उसमें से कुछ न लेना .........................................................
............. ( 4 अननिसा 20 )
इसका तात्पर्य है कि एक मुस्लिम पति को अधिकार है कि वह एक पत्नी को दूसरी से बदल सकता है बषर्ते कि एक समय पर
चार पत्नियों की निर्धारित सीमा से अधिक न हो जाए, सीमा उल्लंघन न हो जाए । वह ऐसा आसानी से कर सकता है उसको अपनी
इच्छानुसार कारण बताए बिना तलाक देने की षक्ति है । हसन जो कि पैगम्बर का पौत्र था इसी रीति से अपनी पत्नियों की संख्या
बढ़ाकर सत्तर से अधिक बना सका । उसकी आदत थी कि दिन मंे षादी करता था और एक अथवा दो रात बिताकर उस स्त्री को
तलाक दे देता था ताकि फिर से दूसरी षादी कर सके ।
9. एक रखैल, जो कि बेसहारा होती है, के साथ संभोग करना मानवता के विरुद्ध प्रथम श्रेणी का अपराध है । रोम के कानून में
इसके निमित्त मृत्यु दण्ड निर्धारित है परंतु इस्लाम ने इस अषिश्टता को बढ़ावा ही दिया ताकि उसके अनुयायी बढ़ सकंे । रखैल
के साथ बलात्कारी पुरुश के विरुद्ध कोई कानून नहीं है किन्तु एक व्यभिचारिणी स़्त्री को एक दम दंडित करने की कानूनी व्यवस्था
है और उसका पुरुश विधिक परिणामों के भय के बिना उसको इसका दण्ड दे सकता हैः ‘‘ तुम्हारी स्त्रियाँे में से जो व्यभिचार से
ग्रस्त हों, उन पर अपने में से चार की गवाही लो । फिर यदि वे गवाही दे ंतो उन्हें घरों में बंद रखों यहाँ तक कि उन्हें मृत्यु
ग्रस ले या अल्लाह उनके लिए कोई राह निकाले । ’’
( 4 अननिसा 15 )
‘‘ या अल्लाह उनके लिए कोई राह निकाले ’’ चूँकि इस वाक्य का किसी ने भी संतोशजनक ढंग से स्पश्टीकरण नही किया है,
एक व्यभिचारिणी स्त्री के लिए अन्य कुछ भी दण्ड नहीं हो सकता सिवाय इसके कि बंदी बनाकर उसे मार दिया जाए । यह दण्ड के
अन्य रूपों यथा कोड़े मारना या पत्थरांे से मारना के अतिरिक्त है ।
10. इस्लाम में स्त्री का सही मूल्य सुस्पश्ट हो जाता है जब हमें पता चलता है कि उसका विवाह स्थायी नहीं होता है, वरन पराधीन
होता है । यदि एक पुरुश अपनी पु़त्र वधु को पसंद नहीं करता है और वह अपने पुत्र को आदेष देता है कि कारण बताए बिना
वह अपनी पत्नी को तलाक दे दे तो पुत्र को ऐसा करना ही पड़ेगा ।
( तिर्मजी खण्ड 1 पृश्ठ 440 )
( क ) पैगम्बर की एक प्रसिद्ध परंपरा भी है जो कि कातिब अल वकीदी से संबंधित है और जिसको मुल्ला लोग मुस्लिम भाई चारे की
घोशणा के लिए गर्व से बताते हैं:
‘‘ मेरी दो पत्नियों की ओर देखो और इनमें से तुम्हें जो सर्वाधिक अच्छी लगे उसे चुन लो । ’’
इस भाई चारे का प्रदर्षन मदीने के एक मुसलमान ( अंसार ) ने एक प्रवासी मुसलमान से उस समय किया था । जब पैगम्बर
ने अपने अनुयायियों समेत मक्का से भागकर मदीना मंे षरण ली थी । यह प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया गया था और भंेटकर्ता ने अपनी
उस पत्नि को तलाक दे दिया था जिसको प्रस्ताव के स्वीकारकर्ता व्यक्ति ने चुना था ।
इससे यही सिद्ध होता है कि इस्लाम में स्त्री एक निषानी मात्र है । निम्नलिखित हदीस को भी देखिए-
( ख ) अबूबकर के नेतृत्व में फजारा के विरुद्ध हुए युद्ध में एक अति सुंदर कन्या लूट के हिस्से के रूप में सलमा बिन अल
अकवा को दी गयी । उसने उस समय तक उसका षील भंग नहीं किया कि रास्तें में पैगम्बर मिल गए और कहा: ‘‘ ओ सलमा, यह
लड़की तू मुझे दे दे, अल्लाह तुम्हारे पिता को सुखी रखे । ’’ सलमा ने कहा ‘‘ हे अल्लाह के पैगम्बर यह लड़की तो आपके लिए ही है,
अल्लाह कसम अभी तक मैंने इसके कपड़े नहीं उतारे है । ’’
अल्लाह के संदेष वाहक ने उस लड़की को मक्का के लोगों के पास भेज दिया जहाँ पर उसे, वहाँ रखे गए मुसलमान कैदियों की
मुक्ति के बदले में अभ्यर्पित कर दिया ।
( मुस्लिम 4345 )
पैगम्बर ने स्वयं भी लड़कियों को भेंट में स्वीकार किया था । कौप्टिक मारिया जिससे उन्हें पुत्र भी प्राप्त हुआ था इस विशय का उदाहरण है

11. हज्ज मंे पैगम्बर ने मंच से घोशणा की कि एक पत्नि को अपने पति की आज्ञा के बिना उसके स्वामित्व की वस्तु में से कुछ भी
व्यय नहीं करना चाहिए यहाँं तक कि खाद्यान्न खरीदने के लिए भी यह निशेध समान रूप से लागू था ।
( तिरमजी खण्ड1 पृश्ठ 265 )
12. अति महत्वपूर्ण मजहबी मामलेां में भी एक पत्नि के लिए पति के आदेष का पालन करना अनिवार्य है । कई हदीसों में
ऐसा कहा गया है कि पत्नी को पति की स्वीकृति के बिना उपवास भी नहीं रखना चाहिए यदि वह उसका संभोग करना चाहता
हो ।
( तिरमजी खण्ड 1 पृश्ठ 300 )
13. इस्लाम एक स्त्री को पुरुश पर उसके कामोद्दीपक प्रभाव के कारण षैतान का रूप मानता हैः
‘‘ पैगम्बर ने एक बार अनायास ही एक स्त्री को देखा और कामातुर हो गए । वह घर गए तथा जैनब का जो संुदर पत्नियों में
से एक थी, संभोग किया । उन्हेांने कहाः ‘‘ एक स्त्री का सामना षैतान के सामने जैसा है यदि आप किसी स्त्री के आकर्शण से
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प्रभावित हो जांए तो आप अपनी पत्नी के साथ संभोग कर लें क्योंकि उसके पास भी वह सब है जो उस स्त्री के पास है जिसने
आपको प्रभावित किया ।
( तिरमजी खण्ड1 पृश्ठ 428 )
14. एक स्त्री जन्म से ही विकृत होती है ।
पैगम्बर ने कहा:
‘‘ स्त्री के रचना एक अस्थि से हुई है जो विकृत होती है । यदि आप उसे सीधा करना चाहेंगे तो आप उसे तोड़ देंगे । जैसी भी वह
है उसका वैसे ही सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए यही वांछनीय है ।
( तिरमजी खण्ड1 पृश्ठ 440 )
15. यहाँ एक आष्चर्य चकित करने वाली हदीस है । ‘‘ वह स्त्री जिसका पति उससे रात्रि में और प्रत्येक रात्रि में प्रसन्न रहता है उस
स्त्री को जन्नत मंे स्थान मिलेगा । ’’
( तिरमजी खण्ड1 पृश्ठ 428 )
इसका तात्पर्य यह है कि एक औरत द्वारा पुरुष की काम पिपासा केा शांत करना ही उसकी अल्लाह पूजा का कार्य है ।
क. इसी कारणवश एक और हदीस में कहा गया है किः
‘‘ एक स्त्री जो अपने पति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति के लिए अपने आपको सजाती है तो वह कियामत के दिन के अधिंयारे के
समान है । ’’
( तिरमजी खण्ड1 पृश्ठ 430 )
15. स्वभाव से ही एक स्त्री पुरुश के लिए विपदा है । पैगम्बर ने कहा कि उन्होंने पुरुश के लिए सिवाय स्त्री के कोई विपदा नहीं
छोड़ी जो उसको चोट पहुचाए ।
( तिरमजी खण्ड1 पृष्ठ 430 )
उपरलिखित के साथ निम्नांकित जोड़कर इस्लाम में नारी के स्थान का अनुमान कीजिए ।
17. एक स्त्री यदि अपने पिता, पति या भाई के साथ के बिना, अकेली, तीन या उससे अधिक दिनों की यात्रा पर जाती है तो वह
ईमान वाली नहीं है ।
( तिरमजी पृश्ठ 431 )
18. यदि कोई स्त्री अपने पति से बुलाए जाने पर शय्या पर न आए तो वह फरिश्तों की बद्दुआओं का निशाना बन जाती है । यदि
वह अपने पति की शय्या त्याग कर चली जाती है तो भी ठीक ऐसा ही होगा ।
( बोखारी, खण्ड 7 पृष्ठ 93 )
19. जो स्त्रियाँ अपने पति के प्रति कृतघ्न हैं, वे दोजख की अर्तवासी हैं, एक स्त्री का यह कहना भी कृतघ्नता है कि ‘‘ मुझे तुमसे
कोई अच्छाई नहीं मिली । ’’
( बोखारी, खण्ड 7 पृष्ठ 96 )
20. एक स्त्री को अनेक ढंगों से उसके अपने शरीर के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है । उसके दूध का भी मालिक उसके
पति होता है ।
( बोखारी, खण्ड 7 पृष्ठ 27 )
उसे गर्भ निरोध प्रयोग में लाने की भी अनुमति नहीं दी जाती ।
21. पैगम्बर ने कहा है कि जब एक पत्नि अपने पति को खिजाती है तो जन्नत की हूरँे उसको यह कहकर बद्दुआंए देती हैं ‘‘ खुदा
नाश करे क्योंकि वह तुम्हारे साथ थोड़े ही समय के लिए हैः वह जल्दी ही तुम्हारा साथ छोड़कर कर हमारे पास आ जाएगा । ’’
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 पृष्ठ 560 )
22. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ एक स्त्री की गवाही की कीमत एक पुरुष की गवाही के सामने वजन की आधी होती है ..........................
ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास बुद्धि की कमी होती है । तथापि स्त्री इस्लाम की मर्यादा के लिए भी हानिकारक है और उनको
रज्रस्राव के होते हुए प्रार्थना करने या उपवास रखने की अनुमति नहंीदी जा सकती । ’’
( मिस्कट खण्ड 1 पृष्ठ 19 )
23. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ स्त्रियों से सावधान रहो क्योकि इस्राइलियों पर जो विपदा आयी थी वह स्त्रियों के ही कारण थी । ’’
( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 70 )
24. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ दुर्भाग्य , स्त्रीत्व, आवास व घोड़े का एक भाग है । ’’
( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 70 )
25. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ कोई भी स्त्री अपने स्वयं की या किसी दूसरी स्त्री के विवाह की रस्म न करे क्योकि ऐसी स्त्री पथभ्रष्ट
करने वाली होती है । ’’
( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 78 )
26. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ यदि हव्वा की रचना न हुई होती तो कोई भी स्त्री अपने पति के प्रति बेईमान न होती । ’’
( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 98 )
च्क्थ् ब्तमंजमक ूपजी कमेाच्क्थ् च्क्थ् ॅतपजमत . ज्तपंस रूरू ीजजचरूध्ध्ूूूण्कवबनकमेाण्बवउ
19
27. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ जब एक पुरुष अपनी पत्नि को शय्या पर बुलाए और वह मना कर दे और पति क्रोधित हो जाए तो
फरिश्ते सारी रात उस स्त्री को बद्दुआंए देते हैं । ................................... यहाँ तक कि आकाश का स्वामी, ( अल्लाह ) उससे तब
तक क्रोधित रहता है जब तक कि उसका पति उससे समझौता न कर ले । ’’ ( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 100 )
28. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ यदि किसी स्त्री की मृत्यु हो जाती है और उसका पति उससे प्रसन्न था, तो वह जन्नत मंे जाती है ।
’’ ( मिस्कट खण्ड 2 पृष्ठ 102 )
29. पैगम्बर ने कहा हैः ‘‘ कयामत के दिन एक पति से,उसके द्वारा अपनी पत्नि की पिटाई के विषय मे पूछताछ नहीं की जाएगी ।
’’ ( मिस्कट खण्ड 1 पृष्ठ 19 )
( अ ) ‘‘ स्त्री की पशुता ’’ को पालतू बनाने के पिटाई किया जाना , इस्लाम की विशेषता है-
कुरआन ने कहा है किः ‘‘और जो स्त्रियाँ ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ, बिस्तरों में उन्हें तन्हा छोड़ दो
और उन्हें मारो । फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगें तो उनके विरुद्ध कोई राह न ढूढों । ’’
( 4 अन निसा 34 )
ऐसा कहा गया है कि स्त्रियों की कमी के कारण अरब में एक ऐसी संस्कृति थी जो लगभग मातृसत्तात्मक थी अर्थात् वे
इसलिए पुरुषों पर हावी थीं । पैगम्बर स्वयं खदीजा का कर्मचारी था जिससे बाद मंे उन्होंने शादी कर ली, इस तथ्य के होते हुए भीकि
वह उनसे 15 वर्ष बड़ी थी ।
पैगम्बर को पुरुष प्रधान समाज की सोच वरदान मंे मिली थी और चाहते थे कि पुरुष प्रभुत्व प्राप्त कर ले ताकि एक मजबूत,
लड़ाकू, अरब राष् बन सके जो विश्व को जीत सके । इसी कारण से कुरआन में पुरुषों को पूर्ण अधिकार दिए गए कि वे स्त्रियों को
दबा सकें, आवश्यकता पड़ने पर मार पीट कर भी पुरुष की काम पिपासा की सर्वोच्चता हेतु स्त्री का दमन अनिवार्य अंग था । पुरुषों
ने इस अधिकार का निश्चित रूप मंे सर्वोत्तम प्रयोग किया । एक हदीस मंे कहा गया है:
‘‘ स्त्रियाँ पुरुषों के सामन साहसी हो गयी हैं, अतः पैगम्बर ने स्त्रियों की पिटाई का अधिकार दिया था । इसके फलस्वरूप एक
संध्या को 70 स्त्रियाँ पैगम्बर के घर इकट्ठी हुई तथा उन्होंने अपने अपने पतियों की शिकायत की जिन्हें वे लोग अच्छे लोग नहीं
समझती थीं ।
( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 पृष्ठ 553 )
30. मंै दोहराना चाहूँगा कि पत्नी को पीटने की प्रथा के साथ ही पर्दे की प्रथा का स्त्रियों की स्वतंत्रता को समाप्त कर देने में बड़ा
हाथ रहा है । पाठकों की सुविधा के लिए मैं कुरआन की संबधित आयतों को उद्धृत करता हूँ: ‘‘ और ईमान वाली स्त्रियों से कहो
कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपने शर्मगाहेां ( गुप्त इंद्रियों की रक्षा करें, और अपना श्रृंगार न दिखांए सिवाय उनके जो उसमें
से जाहिर रहं, और अपनी सीनों ( वक्ष स्थल ) पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें और वे अपना श्रृंगार किसी पर जाहिर न करें

( 24 अन नूर 31 )
पुनः हे नबी ! अपनी पत्नियों अपनी बेटियों और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे ( बाहर निकलें ) तो अपने ऊपर अपनी चादरों
के पल्लू लटका लिया करें ।
(33 अल अहजाब 59 )
31. तत्पश्चात कुरआन में फिर से आदेश है
‘‘ और अपने घरों के अंदर रहो । ’’
( 33 अल अहजाब 33 )
इस प्रकार मुस्लिम स्त्रियों को समाज से पूर्णतः अलग कर दिया गया है और उसको एक काम पिपासा पूर्ति का खिलौना मात्र
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