Thursday, May 5, 2011

इस्लामी रणनीति है हिन्दू आतंकवाद का हौव्वा

                                                      प्रस्‍तुतिः डॉ0 संतोष राय


 क्या देश में हिन्दू आतंकवाद पूरी तरह पैर पसार चुका है जो उतना ही खतरनाक है जितना कि अरब के पैसे से पलनेवाला बहावी आतंकवाद? भारत में कुछ छुटपुट ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्हें न केवल आतंकी घटनाओं के समान बनाकर पेश किया गया बल्कि उनका हिन्दू कनेक्शन भी साबित करने की कोशिश की गयी. प्रेम शुक्ल की पड़ताल है कि भारत में हिन्दू आतंकवाद का हौव्वा भी इस्लामिक चमपंथी विचारकों और रणनीतिकारों की "फेश सेविंग एक्सरसाइज" है िजसमें उन्हें मुस्लिम वोट की लालची सरकार का संरक्षण मिला हुआ है.
अजमेर शरीफ बमकाण्ड राजस्थान आतंकवादी निरोधी दस्ते (एटीएस) द्वारा दायर आरोपपत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के केन्द्रीय पदाधिकारी इन्द्रेश के नाम का जिक्र क्या आया सेकुलर मीडिया ने 85 वर्ष पुराने एक हिन्दूवादी संगठन को जिहादी संगठनों की पंगत में ला पटका. आश्चर्यजनक रूप से इस मसले पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से जिस प्रकार की प्रतिक्रिया आयी वह उसे अनायास कटघरे में खड़ा करनेवाली रही. बेशक पुलिस की चार्जशीट में इन्द्रेश का जिक्र आया है, संभव है कि जिन लोगों पर अजमेर शरीफ के बमकाण्ड में शामिल पाये जाने का आरोप लगा है उनसे इन्द्रेश की सार्वजनिक जीवन में कभी मुलाकात रही हो. यह भी संभव है कि वैचारिक स्तर पर कहीं न कहीं इन्द्रेश और अजमेर शरीफ बमकाण्ड के अभियुक्तों में साम्य भी रहा हो. लेकिन सिर्फ वैचारिक साम्य और मेल मुलाकात के मापदण्ड पर यदि किसी को आरोपित किया जाने लगा तो पिछले तीस वर्षों के इस्लामी आतंकवाद के इतिहास में इस देश के मुस्लिमों का शायद ही कोई शीर्षस्थ नेता बचे जो आतंकवाद का आरोपी न बनाया जा सके? इन्द्रेश से आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त अभियुक्तों के संपर्क की कहानी वर्षों पुरानी है. जब मालेगांव बमकाण्ड के मामले में मुंबई की एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा, कर्नल प्रसाद पुरोहित और दयानंद पाण्डेय को गिरफ्तार किया था तब इन्हीं मीडियावालों से कहानी चलवायी गयी थी कि कर्नल पुरोहित आदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक के एस सुदर्शन की हत्या करना चाहते थे. उसका कारण बताया गया था कि इन्द्रेश पाकिस्तानी खुफिया एजंसी आईएसआई के संपर्क में थे. इस तथ्यकी जानकारी होने के चलते कट्टरवादी हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेताओं को निशाना बना रहे थे. उस समय यह बात भी सामने आयी थी कि इन्द्रेश मालेगांव घटना को अंजाम देनेवाले आतंकवादियों से भी संपर्क में थे. यदि 26 नवंबर 2008 को मुंबई में आतंकवादी हमला नहीं हुआ होता तो लगभग तय था कि एटीएस इन्द्रेश को भी पूछताछ के लिए बुलाती.

प्रेम शुक्ल

आज भी महाराष्ट्र पुलिस के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी एसएम मुशरिफ समेत यह प्रचारित करनेवालों का वर्ग सक्रिय है जो कहता है कि 26/11 की आतंकी वारदात मुस्लिम आतंकवादियों की बजाय हिन्दू आतंकवाद को बेनकाब होने से बचाने के लिए खुफिया संस्थाओं का आपरेशन था. हालांकि ये एसएम मुशरिफ स्वयं दाऊद इब्राहिम के साथी अब्दुल करीम तेलगी के करीबी मित्र रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने भी पाया कि एसएम मुशरिफ जैसे लोगों ने तेलगी का पर्दाफाश करनेवाले मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त रंजीत सिंह शर्मा को फंसाकर गिरफ्तार करवाया था. एसएम मुशरिफ ने यह काम निश्चित तौर पर तेलगी, दाऊद और आईएसआई के इशारे पर किया होगा. मुशरिफ के खिलाफ नई मुंबई की एक अदालत में 26/11 के मामले में गलत बयानी के आरोप में मामला दायर करने का निर्देश भी दिया है. उस निर्देश के जारी के जारी होने के समानांतर ही मुंबई उच्च न्यायालय ने हेमंत करकरे आदि की मृत्यु के मामले की जांच के लिए एक जनहित याचिका दायर हुई है. आश्चर्यजनक है कि जो न्यायपालिका संगीन मामलों में जनहित याचिकाओं को रद्दी की टोकरी में फेंक देती है वही न्यायपालिका 26/11 के मामले में विभिन्न देशी विदेशी जांच एजंसियों के जांच करने के बाद भी इसलिए जनहित याचिका स्वीकार कर लेती है क्योंकि उस याचिका में करकरे की मौत पर सवाल उठाये गये हैं. करकरे को हिन्दू आतंकवादियों की जांच के नायक के रूप में पेश करने के लिए मालेगांव में उनकी स्मृति में कई नामकरण हुए हैं. खैर, शहीद करकरे दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए इसलिए उनकी स्मृति को नमन करते हुए भी यही कहना चाहेंगे कि मालेगांव काण्ड की जांच बोगस थी.

करकरे के कार्यकाल में समझौता एक्सप्रेस बमकाण्ड के लिए कर्नल पुरोहित द्वारा सेना के भण्डार से आरडीएक्स आपूर्ति का आरोप लगाया गया था. अमेरिका की सर्वोत्कृष्ट प्रयोगशाला ने यह प्रमाणित किया है कि समझौता एक्सप्रेस में आरडीएक्स का प्रयोग ही नहीं हुआ था. करकरे की टीम ने साध्वी प्रज्ञा, कर्नल प्रसाद पुरोहित की नार्को जांच की थी. जब नार्को जांच में भी उन्हें कोई आपत्तिजनक तथ्य नहीं मिला तो यह प्रचारित किया था कि योगबल के चलते नार्को टेस्ट में भी साध्वी प्रज्ञा कुछ नहीं उगल रहे. क्योंकि मालेगांव का मामला अदालत के विचाराधीन है इसलिए अदालत की अवमानना न होने पाये, इस नाते मालेगांव के आरोपपत्र की हम पोस्टपार्टम नहीं कर रहे, वर्ना एटीएस की टीम ने अपने ही खिलाफ कई सबूत आरोपपत्र में छोड़ रखे हैं. अजमेर शरीफ काण्ड समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव और हैदराबाद आदि चार पांच बमकाण्ड 2007-2008 के दौरान हुए. इन बमकाण्डों की शैली लश्कर-ए-तैयबा और हूजी आदि से भिन्न बताई गयी. लेकिन समझौता एक्सप्रेस और हैदराबाद बमकाण्ड हूजी का कारनामा है यह स्वीकारोक्ति विश्व की लगभग सारी जांच एजंसियां करती हैं. मतलब साफ है कि हिन्दू आतंकवाद का एक शोशा योजनाबद्ध ढंग से खड़ा किया गया. इस शोशे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरना शामिल था. चूंकि इन्द्रेश सरसंघचालक कुप सी सुदर्शन के साथ 2003-2007 के बीच मुस्लिम संगठनों से समन्वय स्थापित कर रहे थे सो उनको ही चारे की तरह की इस्तेमाल किया गया और हिन्दी आतंकवाद की कहानी गढ़ी गयी. सवाल यह है कि यह कहानी क्यों गढ़ी गयी और किसने गढ़ी?
इसका जवाब जो सामने दिख रहा है उस पर सहज विश्वास कर लेना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होगा. लेकिन एकाध दशक बाद लोग इसे सत्यापित करेंगे, लेकिन तब तक देर हो चुकी होगी. अमेरिका और इजरायल की धुरी में हिन्दुस्तान के शामिल होने से इस्लामवाद के प्रचार में जो बाधा खड़ी हुई उसी बाधा से हिन्दू आतंकवाद की संकल्पना साकार की गयी. 1970 से 2001 तक विश्व परिदृश्य में अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान की धुरी का वर्चस्व रहा है. अमेरिकी हथियार को सऊदी धन के बूते पाकिस्तान का बल प्राप्त था. अमेरिका हमेशा किसी एक पक्ष पर भरोसा करने की बजाय दूसरे पक्ष को जीवित रखकर अपने वर्चस्व को कायम रखने में दक्ष है. इसलिए उसने अरब को बैलेंस करने के लिए इजरायल को ताकत दे रखी थी. इजरायल को अमेरिका उतनी ही ताकत देता था जिससे अरब केन्द्रित इस्लामी नेतृत्व अमेरिकी इशारों पर नाचने के लिए मजबूर रहे. अमेरिका इजरायल को खुलकर मान्यता नहीं देता था लेकिन इजरायल को चाहनेवाले अमेरिकी सत्ता संस्थान के संचालक बन गये थे. लेकिन सऊदी अरब समेत मध्य एशिया के पेट्रो धन को अपनी तिजोरी में रखने के लिए अमेरिका ने सऊदी को विशेष राजनयिक महत्व दे रखा था. सऊदी नागरिक को अमेरिका में अमेरिकी नागरिकों से कहीं बढ़कर अधिकार प्रदत्त किये गये थे. 1980 में सोवियत संघ को विखंडित करने में सऊदी अरब के धन और इस्लाम के जिहाद ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सो आईएसआई और जिहादी संगठन अरब द्वारा पाले गये अमेरिका के लश्कर थे. अरब को नियंत्रित करता है वहाबीवाद.

वहाबीवाद का भारतीय संस्करण दारुल-उलूम देवबंद अफगानी तालिबानों का गुरुकुल है. 9/11 की घटना से अमेरिका को अपनी विश्व शक्ति का समीकरण बदलना पड़ा. उसे तालिबान के खात्मे के लिए पाकिस्तान की मदद और सऊदी अरब का समर्थन जरूरी था. लेकिन अमेरिका ने समझ लिया था कि अब अमेरिका, इजरायल और भारत का वैश्विक शक्ति त्रिकोण बनाना उसकी अपनी चौधराहट के लिए जरूरी है. जैसे ही अमेरिका आतंकवाद से लड़ने के लिए सजना शुरू करता है उसे जमीनी धरातल पर पाकिस्तान में कट्टर देवबंदी विचारधारा की बराबरी में उदारवादी सुन्नी विचारधारा को प्रश्रय देना शुरू कर दिया. सऊदी अरब 1980 के दशक में इरान द्वारा मक्का शरीफ पर कब्जे के प्रयास से आज तक घबराता है. वह जानता है कि यदि वहाबी जनसंख्या का इस्लामी समुदाय में वर्चस्व नहीं बना तो सऊद परिवार के हाथ से सऊदी की सत्ता भी जाएगी और मक्का भी. बांग्लादेश और पाकिस्तान में उन्होंने धनबल, सत्ताबल और आतंक बल से अनियंत्रित विस्तार किया है. 9/11 की घटना के बाद उसका यह विस्तार न केवल रूक गया बल्कि अमेरिकी नजर लगने पर उसकी उलटी गिनती शुरू होने की आशंका खड़ी हुई. सो, तय है कि सऊदी ने देवबंद शरीफ मौलवियों को तलब किया होगा. यह भलि भांति जान लें कि देवबंद परिवार के आलिमों का सऊद परिवार में वजन है. 1990 के दशक में दाऊद का भाई अनीस एक बार संयुक्त अरब अमीरात में अय्याशी और हत्या के एक मामले में पकड़ लिया गया था. भारतीय एजंसियां उस समय हर हाल में अनीस को भारत लाना चाहती थी. चूंकि भारत में हिन्दूवादी दलों का राज था, सो दाऊद किसी भी कीमत पर अपने भाई को हिन्दुस्तान के हवाले नहीं करना चाहता था. उसने आईएसआई और पाकिस्तान की हर ताकत को याद किया. लेकिन वह अपने भाई को बचाने में कामयाब होता नजर नहीं आया तो उसने देवबंद शरीफ से जुड़े एक आलिम की शऱण ली. भारतीय खुफिया एजंसियां भलि भांति जानती हैं कि एक टेलीफोन हिन्दुस्तान से गया और अनीस सम्मानपूर्वक पाकिस्तान पहुंचा दिया गया. इसी देवबंद के आलिमों को किसी जमाने में भारत सरकार पाकिस्तान में होनेवाले इस्लामी सम्मेलनों में तालिबानी ताकतों को हिन्दुस्तान के मुखालिफ होने से रोकने के लिए भारत सरकार भेजती रही है. ऐसा कई बार हुआ भी है कि ये देवबंदी आलिम पाकिस्तान के इरादें को नाकमयाब कराने में कामयाब रहे हैं. जब देवबंदी आलिमों को अपने दीन इमान पर खतरा नजर आया तो उन्होंने खुद को आतंकवाद का शिकार होने से बचाने की रणनीति बनानी शुरू की.
देवबंद को आतंकवादी जांच के दायरे से बचाने का एकमेव तरीका था आतंकवाद की जांच की दिशा को बिल्कुल नयी दिशा में मोड़ना. इस दौरान एक एसएमएस व्यापक पैमाने पर प्रचारित हुआ कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है? इस एसएमएस से हर मुसलमान खुद को आरोपित महसूस कर रहा था. ऐसे माहौल में एकमेव तरीका था कि हिन्दुओं के प्रतिक्रियावादियों को उत्तेजित कर हिन्दू आतंकवाद को स्थापित कर दिया जाए. सो देवबंद ने अपने लंबे इतिहास में पहली बार आतंकवाद और जिहाद को अलग अलग परिभाषित कर आतंकवाद के खिलाफ फतवा देना तय किया. हिन्दू आतंकी कार्रवाइयां और इस फतवे की तैयारियां समानांतर रहीं. बीच के दिनों में 26/11 के मामले में एफबीआई द्वारा गिरफ्तार किये गये लश्कर के आतंकी डेविड कोलमैन हेडली का विस्तृत बयान इस षण्यंत्र के एक पहलू को उजागर करता है. डेविड हेडली एफबीआई के एजंट के साथ साथ लश्कर का आतंकवादी था. वह जब मुंबई आया तो उसने 26/11 की कार्रवाईयो को हिन्दू आतंकवादी के रूप में प्रचारित करने के लिए मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर से लाल धागे वाला रक्षा कवच खरीदा. सवाल यह है कि हेडली आतंकियों को लाल धागा क्यों पहनाना चाहता था? इरादा साफ था कि 26/11 की घटना को हिन्दू आतंकवाद की सबसे बड़ी और घृणित कार्रवाई के लिए प्रचारित किया जाना था. हेमंत करकरे की मौत के लिए हिन्दू आतंकवादी दोषी करार दे दिये जाते अगर कसाब न पकड़ा गया होता. लश्कर ने मुस्लिम आतंकियों को अगर हिन्दू पहचान देने की कोशिश की होगी तो इसके पीछे कोई लंबी रणनीति रही होगी. जिस तरह से अमेरिकी एजंसी ने हेडली को लश्कर-ए-तोएबा में प्लांट किया था उसी तरह बवाही प्रभाव के चलते कोई भी एजंसी हिन्दू प्रतिक्रियावादियों को दिग्भ्रमित कर छिटपुट आतंकवाद के लिए प्रेरित कर दे तो इसमें आश्चर्य क्या है? सवाल यह है कि असली दोषी किसे मानें?

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