Thursday, August 11, 2011

आजादी के नए संघर्ष का वक्त



 राजनाथ सिंह सूर्य

प्रस्‍तुति- डॉ0 संतोष राय
 
 हमने आजादी जनता के लिए प्राप्त की थी और नारा दिया था कि हम ऐसी व्यवस्था अपनाएंगे जो जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए होगी, लेकिन आजादी के 65 साल बीतने के बाद अनुभव यह हो रहा हे कि हमारी सत्ता अंग्रेजी सत्ता के समान ही कुछ निहित स्वार्थी लोगों के हित चिंतन में सिमटकर रह गई है। क्या आजादी का संघर्ष इसीलिए किया गया था? युवाओं ने इसीलिए बलिदान दिया था कि अंग्रेजों के स्थान पर कुछ 'स्वदेशी' लोग सत्ता का उपयोग करें। सत्ता का हस्तानांतरण हुआ है, लेकिन उसके आचरण में बदलाव नहीं आया है। जब भी 15 अगस्त नजदीक आता है मुझे ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं-आज हथकड़ी टूट गई है, नीच गुलामी छूट गई है, उठो देश कल्याण करो अब, नवयुग का निर्माण करो सब।

क्या सचमुच हथकड़ी टूट गई है और गुलामी से छुटकारा मिल गया है? हमारी शक्ति किसके कल्याण में लग रही है और कौन से नवयुग का हम निर्माण कर रहे हैं। यदि कुछ चमचमाती सड़कें, सड़कों पर पहले की अपेक्षा सौ गुना अधिक दौड़ रहे वाहन, शहरों का निरंतर विस्तार, तकनीकी उपकरणों की भरमार और कर्ज के सहारे निर्वाह को नवयुग का कल्याण माना जाए तो हम सचमुच 15 अगस्त 1947 के बाद बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन जिन जीवन मूल्यों के लिए हमने आजादी की जंग लड़ी, क्या उस दिशा में कोई प्रगति हुई है? देश में बढ़ते एकाधिकारवादी आचरण ने सत्ता को इतना भ्रष्ट और निरंकुश कर दिया है कि उसकी चपेट में आकर सारा अवाम कराह रहा है। महात्मा गांधी का मानना था कि गांवों का विकास ही उत्थान का प्रतीक होगा। गांवों में जीवन मूल्य के बारे में अभी भी संवेदनशीलता है। हमने पंचायती राज व्यवस्था को तो अपनाया है, लेकिन गांवों को उजड़ते जाने से नहीं रोक पा रहे हैं। कृषि प्रधान देश में खेती करना सबसे हीन समझा जाने लगा है। शिक्षा के लिए अनेक आधुनिक ज्ञान वाले संस्थान जरूर स्थापित हो गए हैं, लेकिन वहां से 'शिक्षित' होकर निकलने वालों की पहचान किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचा वेतन पाने के आधार पर हो रही है। स्वदेशी, स्वाभिमान और स्वावलंबन की भावना तिरोहित होती जा रही है। कर्ज जिसे आजकल 'एड' का नाम दे दिया गया है, एकमेव साधन बनकर रह गया है, जिसने हमें फिर गुलामी की तरफ धकेल दिया है। राजनीतिक आजादी तो मिली, लेकिन आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास न होने के कारण हम आर्थिक रूप से गुलाम होते जा रहे हैं, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में हुआ था। तब भी शासक तो स्वदेशी ही थे, लेकिन उनको चलना ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुसार पड़ता था। आज हम भी अपने आर्थिक क्षेत्र को विश्व बैंक या विश्व मुद्रा कोष के पास गिरवी रख चुके हैं। जिन वस्तुओं की हमें जरूरत भी नहीं है उनको आयात करने की विवशता से हम बंधते जा रहे हैं। हमारी सीमाएं असुरक्षित हैं। हम यह जानते हैं कि किसके द्वारा और किस-किस प्रकार से असुरक्षा पैदा की जा रही है, लेकिन हम कार्रवाई नहीं कर सकते, क्योंकि उसके लिए किसी की रजामंदी जरूरी है। हमारा ध्यान केवल सत्ताधारी बने रहने तक सीमित हो गया है। उसे पाने के लिए समाज में संविधान के उपबंधों के अनुसार समान नागरिकता की भावना पैदा करने के बजाय हम वैसा ही उपाय करते जा रहे हैं जिसके कारण देश का विभाजन हुआ था। उससे भी उसमें बढ़कर हम जातियों, उपजातियों आदि की पहचान उभारने में लगे हुए हैं। लालबहादुर शास्त्री ने संकट से उबरने के लिए सोमवार को अन्न न खाने की जो अपील की उससे कोई बहुत बड़ी बचत नहीं होने वाली थी, लेकिन लोगों ने उनकी बात मानी थी। आज क्या यह संभव है?

अंग्रेज जनता से दूर रहते थे। हमारे नेता भी वैसा करने लगे हैं। जो जितना अधिक सुरक्षा के घेरे में और जनता से दूर रहता है, उतना ही बड़ा नेता माना जाता है। आजादी की लड़ाई के समय हमने कहा था हम केवल सत्ता ही नहीं व्यवस्था भी बदलेंगे, लेकिन अंग्रेजों के समय की व्यवस्था को और मजबूती प्रदान करते जा रहे हैं। अंग्रेजों ने हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन रखी थी, हमने केवल उन लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मान्य किया है जो झूठ बोले, फरेब करे या फिर किसी बाहरी देश के इशारे पर काम करे। जीवन में पारदर्शिता समाप्त होती जा रही है। अंग्रेज हमारी संपदा लूटकर इंग्लैंड ले जाते थे, आज तो अपने ही देश की संपदा लूटकर बाहर ले जा रहे हैं। ऐसा सब क्यों हो रहा है? आजादी के पूर्व जिस स्वाभिमान से हम सिर उठाकर संघर्ष में कूद पड़ते थे वह आज कहां रह गया है? स्वाभिमान तब जागृत होता है जब जीवन में पारदर्शिता हो। नेहरू और शास्त्री के जीवन में पारदर्शिता थी। इसलिए उन्होंने जनता की भावना का संज्ञान लिया था। आज के सत्ताधारी बेशर्मी से अवाम को बहकाने में लगे हुए हैं। आजादी उनके लिए है जो कुर्सी पर बैठे हैं, बाकी तो सब पहले की तरह ही गुलाम हैं। इस गुलामी से मुक्ति मिलने का एक ही उपाय है। अपने स्वाभिमान को जगाना। स्वाभिमान जागृत होगा स्व की पहचान बनाने पर। इस दिशा में जो प्रयास चल रहे हैं उसकी सकारात्मकता को पहचान भर लेने से काम नहीं चलने वाला है। सक्रिय होना पड़ेगा। क्योंकि आज देश बाहर के खतरों से घिरा है और भीतर से खोखला होता जा रहा है। इस खोलनेपन को मिटाने से बाहर का खतरा अपने आप समाप्त हो जाएगा। 15 अगस्त 1947 को हमने राजनीतिक आजादी प्राप्त की थी, लेकिन भय, भूख और भ्रष्टाचार से आजाद होना शेष है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने इनसे मुक्ति के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई शुरू की है। हम केवल उसके अनुकूल भर होकर न रह जाएं, बल्कि उसमें सार्थक भागीदारी भी करें।

[राजनाथ सिंह सूर्य: लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं]

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