क्या नेहरू की तरह मनमोहन सिंह भी दुहराएंगे पराजय का इतिहास
नरेन्द्र सहगल
पचास वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल
नेहरू ने चीन की दोस्ती खरीदने के लिए भारी कीमत के रूप में देश की सुरक्षा को ही
दांव पर लगाने की जो भूल की थी, आज फिर वर्तमान प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह उसी विनाशकारी
भूल को दुहराने की गलती कर रहे दिखाई देते हैं। चीन के संबंध में सेनाधिकारियों और
रक्षा विशेषज्ञों की सुरक्षात्मक चेतावनियों की अनदेखी करके जिस विदेश नीति को
भारत की वर्तमान सरकार आगे बढ़ा रही है उससे चीन की ही भारत विरोधी कुचालों को बल
मिल रहा है।
प्रधानमंत्री की गलतफहमी
एक ओर चीन ने भारत की थल और समुद्री सीमाओं को चारों ओर से
घेरने की खतरनाक रणनीति अख्तियार की है और दूसरी ओर भारत के कथित रूप से भोले भाले
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चीन की ओर से कोई खतरा नहीं है। संसद के पिछले सत्र
में डा.मनमोहन सिंह ने यह कहकर सबको निÏश्चत करते हुए चौंकाने वाली जानकारी दी कि चीन
भारत पर हमला नहीं करेगा। देश के दुर्भाग्य से यही गलतफहमी पंडित जवाहरलाल नेहरू
को भी थी।
पंडित जी ने तो अपनी इस भूल को अपने जीवन के अंतिम दिनों
में स्वीकार कर लिया था, परंतु
नेहरू-गांधी खानदान की बहू,
चर्च प्रेरित सोनिया गांधी के निर्देशन में चल रही वर्तमान सरकार के
प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह भी क्या अपनी भूल को उसी समय स्वीकार करेंगे जब बहुत
देर हो चुकी होगी? सभी जानते हैं कि
1962 में चीन ने भारत
के साथ हुए सभी प्रकार के सीमा समझौतों, वार्ताओं और आश्वासनों को ठुकरा कर भारत पर
आक्रमण करके लद्दाख की हजारों वर्गमील भारतीय जमीन पर कब्जा जमा लिया था। आज तक
चीन ने हमारी एक इंच धरती भी वापस नहीं की। उलटा वह आगे बढ़ रहा है।
चीन की चालों में फंसे नेहरू
1962 में भारत पर
आक्रमण करने के पहले चीन ने प्रचार करना शुरू किया था कि उसे भारत से खतरा है।
हमले के तुरंत पश्चात चीन के प्रधानमंत्री ने सफाई दी थी कि यह सैनिक कार्रवाई
सुरक्षा की दृष्टि से की गई है। अर्थात आक्रमणकारी भारत है, चीन नहीं। जबकि
सच्चाई यह थी कि चीन-भारत भाई-भाई के नशे में मस्त भारत सरकार को तब होश आया था जब
चीनी सैनिकों की तोपों के गोले छूटने प्रारंभ हो चुके थे। भारत की सेना तो युद्ध
का उत्तर देने के लिए तैयार ही नहीं थी। 32 दिन के इस युद्ध में भारत की 35000 किलोमीटर जमीन
भी गई और बिग्रेडियर होशियार सिंह समेत तीन हजार से ज्यादा सैनिक शहीद भी हो गए
थे।
उल्लेखनीय है कि 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने चीन
सरकार के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। विश्व में शांति स्थापना करने के
उद्देश्य पर आधारित पंचशील के पांच सिद्धांतों में एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन न
करने जैसा सैन्य समझौता भी शामिल था। इस समझौते को स्वीकार करते समय हमारी सरकार
यह भूल गई कि शक्ति के बिना शांति अर्जित नहीं होती। हम चीन की चाल में फंस गए। 1960 में भी चीन के
तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत सरकार को अपने शब्दजाल में उलझाकर इस
भ्रमजाल में फंसा दिया कि दोनों देश भाई-भाई हैं और सभी सीमा विवाद वार्ता की मेज
पर सुलझा लिए जाएंगे।
षड्यंत्रकारी चीनी युद्ध नीति
1962 में चीन द्वारा
भारत पर किया गया सीधा आक्रमण उसकी चिर पुरातन षड्यंत्रकारी युद्ध नीति पर आधारित
था। अर्थात पहले मित्र बनाओ और फिर पीठ में छुरा घोंपकर अपने राष्ट्रीय हित साधो।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ एवं सुप्रसिद्ध भारतीय स्तंभकार ब्रह्म चेलानी के
अनुसार "धोखे से अचानक हमला करने का सिद्धांत चीन में ढाई हजार वर्ष पहले की
एक पुस्तक "युद्ध कला" में वर्णित है। चीनी लेखक सुनत्सू की इस पुस्तक
में स्पष्ट लिखा है कि अपने विरोधी देश को काबू करने के लिए उसके पड़ोसियों को
उसका दुश्मन बना दो।" चीन आज भी इसी मार्ग पर चल रहा है।
भारत के पड़ोस में स्थित सभी छोटे-बड़े देशों को आर्थिक एवं
सैन्य सहायता देकर अपने पक्ष में एक प्रबल सैन्य शक्ति खड़ी करने में चीन ने सफलता
प्राप्त की है। इसी रणनीति के अंतर्गत चीन पाकिस्तान को परमाणु ताकत बनने में मदद
कर रहा है और उसकी मिसाइल क्षमता को मजबूत करने में जुटा है। पाकिस्तान अधिकृत
कश्मीर में चीन का सैनिक हस्तक्षेप और इस सारे क्षेत्र को चीन की सीमा तक जोड़ने
के लिए सड़कों का जाल बिछाकर चीन की पहुंच सीधे इस्लामाबाद तक हो गई है। इसी साजिश
के तहत चीन ने बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका इत्यादि
छोटे देशों के बंदरगाहों पर अपने युद्धपोत खड़े किए हैं।
सीधे युद्ध की तैयारियां
चीन ने तो अब भारत के भीतरी इलाकों पर भी अपनी गिद्ध दृष्टि
जमाकर हमारी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति को कमजोर करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं।
भारत-पाकिस्तान को अस्थायी रूप से बांटने वाली कथित नियंत्रण रेखा के पार वाले पाक
अधिकृत कश्मीर में जहां पाकिस्तान की सेना का भारी जमावड़ा है, चीन की पीपुल्स
लिबरेशन आर्मी के 11 हजार सैनिक जमे
हुए हैं। भारतीय जम्मू-कश्मीर के अभिन्न भाग गिलगित और बाल्टीस्तान में चीन की
सैनिक टुकड़ियों की मौजूदगी 1962 की तरह के किसी हमले का स्पष्ट संकेत है।
भारत के एक प्रांत अरुणाचल प्रदेश को तो चीन ने अपना
(दक्षिण तिब्बत) एक अभिन्न भाग घोषित किया हुआ है। वास्तव में तो 1962 में भारत पर
चीनी आक्रमण के समय से ही साम्यवादी चीन की कुदृष्टि नेपाल, सिक्किम, भूटान, लद्दाख और
अरुणाचल प्रदेश पर जमी हुई है। उस समय चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने कहा था
कि तिब्बत तो चीन के दाएं हाथ की हथेली है और नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश इस हथेली की पांच
उंगुलियां हैं। इस पूरे क्षेत्र को हड़पने के लिए चीन के सैन्य प्रयास चल रहे हैं
जो कभी भी सीधे युद्ध में बदल सकते हैं।
चीन की विस्तारवादी रणनीति
अरुणाचल प्रदेश में आर्थिक निवेश के साथ चीन वहां पर भारतीय
सेना का भी विरोध करता है। पिछले दिनों चीन ने अपने भारत विरोधी षड्यंत्रों के तहत
एक आनलाइन मानचित्र सेवा प्रारंभ करके अरुणाचल प्रदेश को चीन का प्रांत बताने का
सिलसिला भी शुरू कर दिया है। इसी नीति के तहत अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को चीन
द्वारा नत्थी वीजा देने का मामला सामने आया है। चीन की यह नीति इस हद तक जा पहुंची
है कि वह भारत के प्रधानमंत्री एवं भारत में शरण लिए हुए तिब्बती धर्मगुरु दलाई
लामा के अरुणाचल प्रदेश में दौरे पर आपत्ति जताने से भी बाज नहीं आता। अरुणाचल
प्रदेश को (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की तरह) भारत से काटने की फिराक में है
साम्यवादी चीन। इस कुटिल चाल को समझना जरूरी है।
उधर नेपाल को भारत से जोड़ने वाली हिन्दुत्वनिष्ठ शक्तियों
को जड़मूल से समाप्त करने के लिए चीन वहां पर सक्रिय माओवादियों को प्रत्येक
प्रकार की सहायता दे रहा है। धीरे-धीरे भारत का यह पड़ोसी देश साम्यवादी चीन के
प्रभाव में आ रहा है। भारत समेत सभी हिमालयी क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए नेपाल को
विस्तारवादी चीन से बचाकर रखना जरूरी है। भारत की चीन के संदर्भ में अपनी विदेश
नीति को इसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहिए था। यही चूक भविष्य में खतरनाक
साबित होगी।
पड़ोसी देशों में सैन्य हस्तक्षेप
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 1962 में चीन के
हाथों बुरी तरह से पराजित होने के पश्चात भी हमारी सरकार ने इस पड़ोसी देश की
विस्तारवादी रणनीति को नहीं समझा। चीन जब भी किसी पड़ोसी देश पर हमला करता है तो
"चीन की सुरक्षा खतरे में" का वातावरण बनाता है। अपनी इस युद्ध नीति को
आधार बनाकर चीन की सेना सीमाओं का अतिक्रमण करके अचानक युद्ध थोप देती हे। सो रहे
लोगों पर बिना चेतावनी के हमला बोलना और उनके जागने तक अपना काम पूरा करके शांति
का झंडा फहरा देना इसी रणनीति का साक्षात नमूना था 1962 का युद्ध।
इससे पूर्व चीन ने 1950 में कुटिलता से तिब्बत पर यह कहकर अपना सैन्य
आधिपत्य जमा लिया कि चीन एवं तिब्बत दोनों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी था। इसी
युद्ध नीति के तहत चीन ने कोरिया में सैन्य हस्तक्षेप करके मानवता का गला घोंट
डाला। चीन ने लगभग इसी समय (1962 के बाद) अपने साम्यवादी आका रूस के साथ भी सीमांत टकराव की
नीति अपनाई। इसी तरह 1974 में चीन ने
वियतनाम के एक द्वीप पारासेल को कब्जाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया और 1979 में वियतनाम के
विरुद्ध सीधी सैनिक कार्रवाई कर दी।
1962 से ज्यादा
खतरनाक हालात
आज चीन अपनी इसी एक परंपरागत युद्ध नीति का विस्तार भारत के
चारों ओर करने में सफल हो रहा है। भारत की सीमा के साथ लगते सभी पड़ोसी देशों को
अपने साथ जोड़कर चीन ने अपनी भारत विरोधी युद्धक क्षमता को 1962 की अपेक्षा कई
गुना ज्यादा बढ़ा लिया है। वायु युद्ध अर्थात आसमान से दुश्मन देश पर तबाही के
गोले बरसाने वाली एंटीसेटेलाइट मिसाइलें बनाकर चीन ने अद्भुत सफलता प्राप्त कर ली
है। इन भयानक मिसाइलों के निशाने पर पाकिस्तान समेत भारत के पड़ोसी देश नहीं होंगे, क्योंकि यह देश
चीन के सैन्य कब्जे में जा रहे हैं। चीनी मिसाइलों के निशाने पर भारत के सैनिक
ठिकाने और शहर होंगे।
अत: 1962 से कहीं ज्यादा खतरनाक इतिहास दुहराने के निशान पर पहुंच
चुके चीन के लिए प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह का यह कहना कि चीन हम पर हमला नहीं
करेगा बहुत ही बचकाना बयान लगता है। यह कथन देश, जनता और सेना को उसी तरह से अंधेरे में रखने
जैसा है जैसे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन को अपना भाई बताकर
वस्तुस्थिति की अनदेखी कर दी थी। क्या वह अपमानजनक इतिहास फिर दोहराया जाएगा?
देश के समक्ष गंभीर चुनौती
चीन की युद्धक तैयारियों के मद्देनजर भारत की सरकार, सेना और समस्त
जनता को खम्म ठोककर खड़े होना चाहिए। चीन के संबंध में किसी कल्पना लोक में
अठखेलियां कर रही सोनिया निर्देशित डा.मनमोहन सिंह की सरकार को वास्तविकता के
धरातल पर उतर कर जनता का मनोबल मजबूत करना चाहिए। चीन की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष
युद्ध नीतियों का फिर से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। चीन की परंपरागत
युद्धनीति में अंतरराष्ट्रीय नियमों, सद्भावनाओं, वार्ताओं और सहअस्तित्व जैसे मानवीय मूल्यों के
लिए कोई स्थान नहीं है। वहां धोखा है, फरेब है और कुछ नहीं।
.
भारत के समक्ष एक गंभीर रक्षात्मक चुनौती है। यह चुनौती
इसलिए भी भयानक है क्योंकि चीन और पाकिस्तान एकजुट हैं। दोनों के वैचारिक आधार
हिंसक जिहाद और हिंसक साम्यवादी विस्तारवाद भारत के मानवतावादी तत्वज्ञान से मेल
नहीं खाते। इसलिए समय रहते भारत को अपनी सामरिक क्षमता को एक विश्वव्यापी अजेय
शक्ति के रूप में सम्पन्न करना होगा। यही एकमेव रास्ता है।
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