Friday, January 11, 2013

पुराना है यह नफरत का नासूर


के  विक्रम राव



जरा मुलाहिजा हो उन सूक्तियों का जिन्हें हैदराबाद पुलिस ने अपनी प्राथमिकी (एफआईआर) में दर्ज कराया है और समाचार चैनलों तथा सोशल मीडिया ने मय वीडियों के रिकॉर्ड किया है.

उवाचक हैं आल इंडिया मजलिसे इत्तिहादे मुसलमीन के माननीय विधायक अकबरुद्दीन ओवेसीजिन पर सांप्रदायिक कटुता फैलाने व देश के खिलाफ जंग छेड़ने जैसे गंभीर आरोप लगे हैं. उनकी पार्टी सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की गत नवम्बर तक घटक थी और आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार की समर्थक रही. कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि ऐसे कथनों पर भी पुलिस ने अकबरुद्दीन को गिरफ्तार क्यों नहीं किया. मुकदमा कायम क्यों नहीं किया.

इतना सब होने के बाद भी शायद किरण रेड्डी की सरकार हरकत में न आती, यदि मीडिया का दबाव न पड़ता. इसका कारण भी है. मजलिस के सात विधायक कांग्रेस सरकार की विधानसभा में डांवाडोल स्थिति में मदद कर सकते हैं. तेलंगाना का विरोधी हाने के कारण मजलिस पृथक राज्य के आंदोलनकारियों के खिलाफ सरकार की संकटमोचक बन सकती हैं. आगामी राज्यसभा मतदान में मदद दे सकती है. सबसे ज्यादा यही कि वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी का साथ देने से मजलिस को रोका भी जा सकता है. अर्थात प्रदेश कांग्रेस शासन अकबरुद्दीन से अधिक लाभान्वित होती. उसे नाराज करके किरन रेड्डी क्यों बैल को बुलायें?

इन राजनीतिक हालात में कांग्रेस की विवशताओं को अकबरुद्दीन जानते हैं. इसीलिए तेवर चढ़ा रहे हैं. इसीलिए पुलिस को बाधित कर दिया गया. वर्ना पुलिसिया तहकीकात का भान होते ही अकबरुद्दीन लंदन जाकर आराम न फर्माते. हैदराबाद लौटकर वे मेडिकल कालेज मे भर्ती हो गए, जो हर संपन्न अपराधी का आम चलन हो गया हैं. आखिर आंध्रप्रदेश पुलिस की अपनी जवाबदेही भी है. पानी नाक तक पहुंचने के पूर्व उसने विधायक को कैद कर लिया. मुकदमा जब भी चले.

इस अकबरुद्दीन के प्रकरण से दो तथ्यों पर गौर करना होगा. पहला तो यही कि फिर एक बार चंद हिंदुओं का वैचारिक ढकोसला और व्यावहारिक चालाकी उजागर हो गई. इन सेक्युलरजनों ने अकबरुद्दीन की समता वरुण गांधी, प्रवीण तोगड़िया, मोहन भागवत के बयानों से किया. मानों दो बुरी बातें मिलकर एक अच्छाई बन जाती हों. गणित का फामरूला यही कहता हैं. लेकिन तर्क यही है कि इन हिंदू अग्रणियों की आलोचना, र्भत्सना और विरोध कई जाने-माने हिंदू लोगों ने खुलकर और जमकर की है.

बिना किसी हिचक अथवा लाग-लपेट के. मगर छह महीने हो गए, एक भी इस्लामी तंजीम या गणमान्य मुसलमान नेता ने अकबरुद्दीन की निंदा नहीं की. अलबत्ता जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति नवाब जंग साहब ने जरूर उंगली उठाई कि इतने वीडियो मिलने के बाद भी हैदराबाद पुलिस को अकबरुद्दीन के खिलाफ कार्रवाई में इतना विलंब क्यों हुआ? हिंदू और मुसलमान की समता करने वाले लोग घूर्तता से अथवा फिर जानकर एक प्रभावी तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं. धर्म के झंझटों से औसत हिंदू दूर ही रहता है. उस पर न कोई फतवा लागू होता है और न कोई मजहबी दबिश ही.
स्पष्ट है कि जिस दिन भारत का बहुसंख्यक कट्टर हो जाएगा, उसी दिन लाल किले पर भगवा परचम लहराएगा. महात्मा गांधी का यही श्रेष्ठतम योगदान रहा है, समन्वित भारतीय सोच की रचना में. यह उदार मजहबी गुण अल्पसंख्यकों में जिस दिन प्रस्फुटित होगा, देश में सच्ची गंगा-जमुनी संस्कृति ईमानदारी से उभरेगी. इस त्रासद तथ्य को अकबरुद्दीन सरीखे खल पुरुष भलीभांति जानते हैं. और इसका लाभ उठाते हैं. वर्ना आदिलाबाद की सभा में इस विधायक ने राम जन्मभूमि पर संदेह व्यक्त करते हुए यह न कहा होता कि कौन जाने कौशल्या कहां-कहां घूमी है और किस जगह राम पैदा हुए? तुर्रा यह कि अकबरुद्दीन की इस घिनौनी तकरीर पर उसके चालीस हजार श्रोतागण ताली पीटते रहे थे.

इससे भी ज्यादा पीड़ादायक तथ्य यह है कि सोनिया कांग्रेस के नेताओं ने अपनी प्रदेश सरकार को समय रहते सचेत नहीं किया कि हिंदुओं का भी यदा-कदा आदर किया करें.

अब सवाल उठता है कि पुलिस हरकत में कब और कैसे आई? राज्य शासन ने कोई भी निर्देश नहीं दिया कि अकबरुद्दीन के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाए. विगत छह महीनों से वह तेलंगाना के जिलों में हिंदुओं के खिलाफ विषवमन करता रहा. अंतत: के करुणासागर नामक वकील ने 28 दिसम्बर, 2012 के दिन नामपल्ली अदालत में इस मुस्लिम विधायक के घोर सांप्रदायिक बयानों का संज्ञान लेने और मुकदमा कायम करने की अर्जी लगाई. पंद्रह दिन हुए इस अदालती निर्देश के जिसका पालन पुलिस को करना पड़ा.

जांच अधिकारी ए रघु ने तब लिखा कि अकबरुद्दीन के कई भड़काऊ भाषण रिकॉर्ड पर हैं. वे सांप्रदायिक विग्रह बढ़ाते हैं, इसके प्रमाण पर्याप्त है. इस विधायक के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया जा सकता है. उसे गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया जा सकता है. इतना सब होते हुए भी अकबरुद्दीन को काफी समय मिल गया कि वे हाईकोर्ट से राहत पाने की कोशिश कर लें. लंदन की सैर कर आएं.

यूं तो मियां अकबरुद्दीन ओवेसी खुद को हबीबे मिल्लत कहते हैं, मगर मासूम अनपढ़ मुसलमानों को नमाज, मजहब, कुरआन शरीफ की आड़ में बरगलाते खूब हैं. चारमीनार इलाके के पास चंद्रायन गुट्टा के झुग्गी-झोपड़ी में गुर्बत और बीमारी से ग्रसित पसमांदा मुसलमानों के वोट पर सियासत करने वाले अकबरुद्दीन हैदराबाद के सबसे आलीशान और महंगे इलाके बंजारा हिल्स की हवेली में वास करते हैं.
जायजाद और जमीन कब्जाने के मामले में अकबरुद्दीन पर बिल्डर मोहम्मद पहलवान ने मई, 2011 के दिन तीन गोलियां चलाई थीं. वे जान बचाकर भागे. उर्दूभाषी पत्रकार इस विधायक की बेजा हरकतों को उजागर करते रहे हैं. मगर सोनिया कांग्रेस की सरकार का वरदहस्त उसे मिला हुआ हैं. अकबरुद्दीन गुलबर्गा मेडिकल कॉलेज पढ़ने गए थे मगर दो साल में ही छोड़ आए. बजाय डॉक्टर बनकर मरीज का उपचार करने के, वे जहरीली फिरकापरस्ती वाली सियासत में जमकर समाज को बीमार बना रहे हैं. यह घिनौनी सांप्रदायिक विरासत अकबरुद्दीन को मजलिस की परंपरा के मुताबिक मिली.

मजलिस की स्थापना निजाम ओस्मान अली ने 1927 में की थी. तभी यह स्पष्ट हो गया था कि हैदराबाद की रियासत दक्षिण भारत में मुस्लिम कट्टरवादियों का केंद्र बनेगी. मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग की यह इकाई पाकिस्तान की रचना में सक्रिय रही. आजादी मिलने के चंद महीनों में ही हैदराबाद रियासत पाकिस्तान में शामिल होना चाहती थी. मगर सरदार वल्लभभाई पटेल ने निजाम का अलग राज्य का सपना खत्म कर हैदराबाद को भारतीय संघ का प्रदेश बना लिया. मजलिस को प्रतिबंधित कर दिया. मगर नेहरू कांग्रेस ने मजलिस को फिर मान्यता दे दी. आज वह फुंसी एक फोड़ा बन गई हैं. अकबरुद्दीन उसके नासूर बन गए हैं, जो सेक्युलर गणराज्य में रिसते रहे हैं. फिर भी कुछ लोग है जो इतना सब बर्दाश्त करते हैं, ताकि गंगा-जमनी तहजीब बनी रहे.

साभार: राष्‍ट्रीय सहारा

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